. . . . . . . . . . . उन्हे अलार्म की घंटी भी अपने गृहनगर की उस गली से आती हुई आवाज़ सी लग रही थी जिसमे कि नगर के बच्चे वायलिन सीखने जाया करते थे | बिंदु जी ने खिड़की खोल दी, सुबह की ताज़ी हवा की खुशबू भी आज रमेश बाबू को बचपन की अपनी पसंदीदा बेकरी की याद दिला रही थी | जिसपे वे अपने सभी मित्रों के साथ जाया करते थे | बीते दिनों की यादें उन्हें मंत्रमुग्ध कर रही थीं | तभी टेलीफोन की घंटी बजी | रमेश बाबू के ऑफिस से था | वे उठे तैयार हुए और निकल पड़े | हालांकि वह छुट्टी वाला दिन था , परन्तु कुछ आव्यशक काम आ पड़ा | चिट्ठी अब भी उनके ऑफिस बैग में ही थी | शाम को वे जल्दी वापिस आ गए और बिंदु जी को बोले कि उनका बैग तैयार करवा दें , वे घर जाने वाले हैं | बिंदु जी ने रमेश बाबू के मुँह से ऐसा सुना और उनका खुद का मुँह खुला का खुला रह गया | उनका और रमेश बाबू का प्रेम विवाह था | दोनों के ही घर वाले आधुनिक सोच वाले थे | वे चूँकि रमेश बाबू को शादी के काफी पहले से भी जानती थीं , पर उन्होंने इतने सालों में कभी भी रमेश बाबू के मुँह से घर जाने की बात नहीं सुनी और आज अचानक से ऐसा सुनकर स्तब्ध रह
गयीं | खैर , रमेश बाबू तैयार हुए, बिंदु जी ने उनका बैग पकड़ाया और वे रेलवे स्टेशन निकल पड़े | ट्रेन में अगर आपको कुछ सोचना हो या पुरानी बातें याद करनी हो तो आप खिड़की की सीट पे बैठ सकते हो या फिर दरवाज़े के पास खड़े होकर सफर के कुछ पल काट सकते हो | रमेश बाबू को सीट वाला विचार शायद ठीक लगा हो , वे वहीँ बैठ गए और सर खिड़की पे टिका दिया, बिल्कुल बच्चे की तरह | उन्हे बचपन की काफी बातें याद आ रहीं थी आज | जैसे कि जब वो खेलने निकलते थे तो कभी - कभी सिर्फ उनका एक दोस्त ही था जो आता था | ये वही दोस्त है जिसने कि आज उन्हे चिट्ठी लिखी , उनका जिगरी यार , जो कि उन्हें भाई के बराबर था | वो जिगरी यार जिस्से कि उन्हे बात किये आज तकरीबन तेरह साल हो आये थे | यह भी तब था जब रमेश बाबू के पिता का देहांत हुआ था और उनके मित्र विनय बहुत संकोचते हुए उनकी तरफ कदम बढ़ाते हुए आये और उनसे पुछा , " रमेश ! तू ठीक तो है न ? " . . . . . . . . . . . . . .( शेष अगले भाग में )


